मेरे घर की संस्कृति के मांगलिक उपादान मूर्त रूप से हल्दी-दूब और दधि-अच्छत ही हैं, इसलिए शहर में एक लंबे अरसे तक बसने के बाद भी मन इन मंगल-द्रव्यों की
शोभा के लिए ललक उठता है। बहुत दिनों से कोई अर्चन-पूजा नहीं की है, जिसको अर्चन का अधिकार सौंप दिया है, उससे भी कोसों और महीनों का व्यवधान है। वसंत की उदास
बयार की लहक एक अजीब-सा अपनापन भर रही है, वर्षांत के कार्य का बोझ सिर पर लदा हुआ है। जिसे लोग उल्लास कहते हैं, वह जैसे पथरा गया है; पर कुछ बात है कि हल्दी
से रंगी हथेली, दूब से पुलकित पूजा की थाली, अक्षत से भरा चौक और दधि से रंगी भाल, ये चित्र मन में उभर ही आते हैं। हृदय का वह प्रथम अनुराग बासी पड़ गया, उस
नव-प्रणय की भाषा जूठी हो गई, उसके अंतर का वह रस सीठ गया, उस रस का वह आपूरित आनंद रीत गया, जिन नव दृग-पल्लवों की बंदनवार लगी, वे दृगपल्लव मुरझा गए, 'नयन
सलोने अधर मधु' दोनों ही करुवा गए; पर क्या जादू है कि मन की कोर में लगी हल्दी नहीं छूटी, जीवन-प्रांतर में उगी हुई दूब और परिसर में बिछी हुई 'अच्छत' राशि
क्षत-विक्षत नहीं हुई।
यह जानते हुए भी कि गाँव की उस मांगलिक कल्पना में शहरी जीवन का कोई मेल नहीं हो सकता, मेरा अनागर मन उस कल्पना का पल्ला नहीं छोड़ना चाहता। किसी ने
प्रतिगामी कहा और किसी ने अपनी काफी-हाउस या कोको-कोला सभ्यता में 'अखपनीय' मानकर दुराग्रही जनवादी या शिष्ट शब्दों का प्रयोग कर प्रगतिशील कहा; पर वह बिचारा
गँवार चरवाहा ही बना रहा। उसकी काली कमली पर दूसरा रंग न चढ़ा। उसकी पुरानी बांसुरी से दूसरी टेर नहीं आई, उसके गीतों में दूसरे गोपाल नहीं आए। उसकी प्रत्येक
नई प्राप्ति अपने शुभ के लिए अब भी हल्दी का वरदान मांगती है। उसकी प्रत्येक नई यात्रा दही का सगुन चाहती है। उसकी प्रत्येक नई साधना दूर्वा का अभिषेक माँगती
है, और उसकी प्रत्येक नई आपूर्ति अक्षत से पूर्णता का आशीष चाहती है।
मैं अवश हूँ। फीरोजी, सुरमई, मूंगिया और चंपई इन रंगों से घिरा हुआ भी नवांकुरित दूब की हरित-पीत आभा की ओर मेरा मन दौड़ ही जाता है और धरती, माटी, मानव और
आस्था, ईमान, सत्य, चेतना और युगमानस - इन सभी उपासना-मंत्रों के कोलाहल में भी 'हरद दूब दधि अक्षत मूला' की गीतियों की स्फूर्ति के पीछे वह भटक जाता है।
चारों ओर से लोग मुझसे प्रश्न पर प्रश्न करते हैं कि तुम अपनी प्रतिभा क्यों बिखरा रहे हो, क्यों नहीं हमारे पंक्ति-बंधन में आकर उसको एक दिशा में आगे
बढ़ाते, युगपथ छोड़कर किन पिच्छिल पगवीथियों पर विभ्रांत हो? मैं किस-किस को और क्या जवाब दूँ? उन्हें कैसे समझाऊं कि मेरे ये संस्कार ही मेरे अस्तित्व हैं,
मैं इनको छोड़कर कुछ नहीं। इस अनंत शून्य में तिरते हुए ये तिनके मिले हैं, उन्हें छोड़कर चलने पर मेरा आसरा टूट जाएगा। उन्हें कैसे दिखलाऊँ कि तुम्हारी
योजना, तुम्हारा यज्ञ, तुम्हारी क्रांति, तुम्हारा वाद, तुम्हारी आस्था और तुम्हारा ईमान मुझे ही नहीं, मेरे जैसे हल्दी, दूब और दधि-अच्छत से अपने मन की
मनौती पूरी करने वाले असंख्य गँवार भाइयों को भी छू नहीं पाते। तुम लोकगीत के तर्ज अपनाते हो, तुम गाथाओं की शैली अपनाते हो; पर तुम लोक का साक्षात्कार नहीं
कर पाते। तुमसे क्या अपने घर की बात कहूँ, तुम समझ नहीं पाओगे। भाई, तुमने तो केवल वसन-भूषण ही देखे हैं, तुम शरीर तक नहीं देख पाये, आत्मा तो बहुत दूर की चीज
है। एक भी धूलिकण न सह सकने वाले तुम्हारे ये पाहन-नयन कीच-कांदों में विकसन वाले नलिन-नयनों को कैसे निरख सकेंगे। पत्थर के चश्मे उतारकर अगर तुम अपने आस-पास
सौ दो सौ बीघा भी देख सकते हो तो आओ मेरे साथ, मैं तुम्हें दिखलाऊँ कि बिना किसी अभियान, आंदोलन या क्रांति के उस धूमावृत पल्ली-समाज में एक अखंड यज्ञानल धधक
रहा है, उसमें लपट नहीं, ज्वाला नहीं, दीप्ति नहीं; पर एक ऐसा ताप है जो अनाचार के कठोर-से-कठोर पाषाण को पिघला देगा, रोल्डगोल्ड की चमक को सँवार देगा, जो
बुद्धि के अजीर्ण को पचा देगा और जो बुझी हुई ज्योति को उकसा देगा। वह आग हल्दी तथ दूब-भरी अर्चना और दधि-अच्छतमयी सिद्धि की साक्षी है, जिसमें 'साठी के
चउरा' और 'लहालरि दूब' से भरी अंजलि 'लाख बरिस' की आयुष्म-वृद्धि करती है। वह आग उस बंधन की साक्षी है, जो वन के एकांत की मांग नहीं करता, जो गृह के संकुल में
अपनी एकाग्रता सुरक्षित रख सकता है, वह आग जीवन के उस दर्शन का साक्षी है, जो विचल होना जानता नहीं, वह आग उस सिंदूर-दान की साक्षी है, जिसमें सिंदूर भरने वाला
अपने प्राणों का आलोक किसी की माँग में भर देता है।
मैं आज भी उस आग की आँच अपनी असीम जड़ता के अंतरतम में अनुभव करता हूँ। मेरे मन में वह याद अब भी ताजा है, जब मैं दूर्वाक्षतों से सौ बार चूमा गया था,
तीस-पैंतीस कुल कन्याओं की सेना मस्तक से लेकर जानु तक अपनी उँगलियों से दूब-अक्षत लेकर वय, शक्ति और उमंग के अनुरूप बल लगा-लगाकर एक के बाद एक दबाती जा रही
थी। इसी व्यापार को चूमने की संज्ञा देकर गीत उच्चरित हो रहे थे। मैं इस चूमने से खीझता जा रहा था, ऊपर से थोड़ा-बहुत शहरी संस्कारों के प्रभाव-वश पानी-पानी
हो रहा था; पर भीतर-ही-भीतर मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे दूब-अच्छत के संयोग के द्वारा अक्षय हरियाली की शुभ कामना मेरे अंग-अंग को अभिमंत्रित कर रही हो। उस
चूमने में अधर नहीं मिले, पर जाने कितने बाल, किशोर, तरुण और प्रौढ़ हृदयों को अपने-अपने ढंग से मंगल-चेतना का संस्पर्श अवश्य मिला, उस चूमने से मादकता नहीं
आई; पर जाने विश्व भर के सहयोग का एक ऐसा आश्वासन मिल गया कि मन में मीठी-सी सिहरन पैदा हुई। उस चूमने में शोले नहीं भड़के, नसें नहीं पिघलीं और प्यास नहीं
बढ़ी, बल्कि एक ऐसी शीतलता जड़िमा और परितृप्ति आई कि लगा व्यक्ति का प्रणय समष्टि ही स्नेहच्छाया के लिए युगों से तरसता आया हो और अब पाकर परितुष्ट हो गया
हो। आषाढ़ चढ़ते ही मंजरियों में झूम उठनेवाली साठर के वे लहराते खेत बरसों से देखने को नहीं मिलते; पर उसके हल्दी-रंगे अक्षतों का एक अंजलि से दूसरी अंजलि में
अर्पण-प्रत्यर्पण और उन अक्षतों के मिस हृदय की एक-एक करके समस्त सुकुमार भावनाओं के अर्पण-प्रत्यर्पण की स्मृति आज भी हरी है।
साठी के धान वैशाख-जेठ में रोपे जाते हैं और चिलबिलाती धूप से वे जीवनरस ग्रहण करते हैं। दूब भी पशुओं के खुर से कुचली जाती है, खुरपी से छीली जाती है, कुदाली
से खोदी जाती है, हल की नोक से उलटी जाती है, अहिंस्र कहे जाने वाले पशुओं से निर्ममता के साथ चरी जाती है और मानवों की सबसे उत्तम वृत्ति रखने वाले खेतिहर से
सतायी जाती है; पर वह प्रत्येक जीवन-यात्री को वर्षा में फिसलने से बचाने के लिए पाँवड़े बिछाती है। वह दो खेतों की परस्पर छीना-छोरी की नाशिनी स्पर्धा को
रोकने के लिए शांति-रेखा बन जाती है। जरा-सा भी मौका मिल जाए, तौ फैलकर मखमली फर्श बन जाती है। पनघट के मंगलगीतों का उच्छ्वास पाकर वह मरकत की राशि बन जाती है,
शरद का प्रसन्न आकाश जब रीझकर मोती बरसाता है, तब वह धरती की छितरायी आंचर बन जाती है और जब ग्रीष्म का कुपित रवि आग बरसाता है, तब वह धरती के धीरज की छांह बन
जाती है। उस दूब को यदि नारी पूजा की थाली में सजाती है तो उन समस्त अत्याचारों का क्षण भर के लिए उपशम हो जाता है, जिन्हें दूब प्रतिक्षण सहती रहती है।
भारतीय संस्कृति का मूल आधार है तितिक्षा, जिसकी सही अर्थ में मूर्त व्यंजना ही दूर्वा है। दूर्वा चढ़ाने का जो वैदिक मंत्र है, वह भी इसी सत्य को दुहराता
है, 'कांडात्कांडत्प्ररोहन्ती, परुष: परुषस्परि। एवानो दूर्वे प्रतनु सहस्त्रेण शतेन च'। तितिक्षा ही के कारण उस संस्कृति की एक शाखा उच्छिन्न होते ही
दूसरी शाखा निकल आई है। जितने ही उस पर मार्मिक आघात हुए हैं, उतने ही शत-सहस्त्र उमंगों के साथ वह पनपी है। इसी के कारण उसे अप्रतिहत मांगलिक स्वरूप
प्राप्त हुआ है और इसी के कारण वह भारत की धरती से इतनी हियलगी बन रही है कि बिना उसके उसका कोई मांगलिक छिड़काव नहीं संपन्न होता।
दूर्वा की नोक से जब हल्दी छिड़की जाती है तो ऐसा लगता है कि तितिक्षा के अग्रभाव से साक्षात सौभाग्य छिड़का जा रहा हो। हल्दी-दूब का यह संयोग सत्व को चिद्
और आनंद का मंगलमय परिधान देता है, नहीं तो अपने में सत्व निरापद और अशिव है। उसको अपना गौरव चिद् और आनंद के सुखद संयोग में ही प्राप्त होता है। शायद इसीलिए
वह सत्व राष्ट्र के प्रतीक में हल्दी और दूब के योग का मध्यमान बन गया है।
हल्दी जब तक नहीं लगती, तब तक श्वेत-से-श्वेत वस्त्र अपरिधेय ही बना रहता है। हल्दी जब तक नहीं चढ़ती, तब तक कौमार्य अपरिणेय ही रहता है। हल्दी जब तक नहीं
पड़ती, तब तक रसवती अप्रेय ही रहती है। इसलिए जब अक्षय तृतीया को पहला हल खेत में जाने लगता है, तब हल, बैल और हलवाहा तीनों ही हल्दी से टीके जाते हैं। जब पहला
बीज धरती में पड़ने जाता है, तब खेतिहर, खेत, बीज और कुदाली चारों हल्दी से छिड़के जाते हैं, जब मातृत्व की सफलता में नारी उतरने को होती है, तब उसके नैहर से
आई हुई हल्दी-रंगी पियरी और हल्दी-रंगी झंगुली ही उसको तथा उसके लाल को कुल के समक्ष प्रस्तुत करती हैं। जब कुमारी सुहागिन बनने को होती है, तब उसके अंग-अंग
को हल्दी की असीस देती है और नख-शिख हल्दी से रंग कर ही सौंदर्य सौभाग्य का सिंदूरदान पाता है। जिसको हल्दी नहीं लगती, वह धरती परती पड़ जाती है। जिस पर
हल्दी नहीं खिलती, वह नारी सौंदर्य का अभिशाप बन जाती है। जिसको हल्दी नहीं चढ़ती वह कन्या आकांक्षा की अछोर डोर बन जाती है, क्योंकि हल्दी के ही गर्भ में
धरती का सच्चा अनुराग तत्त्व छिपा रहता है, हल्दी की ही गाँठ में स्नेह का अशेष हृदय से आमंत्रण बँधा रहता है, हल्दी में ही रंगकर श्याम दूर्वाभिराम हो
जाते हैं और हल्दी के छूने ही से मंगल की प्राण प्रतिष्ठा हो जाती है। इसी से यद्यपि उसके लिए वेद ने आग्रह नहीं किया; पर लोक के अंतर का आग्रह था, वह हल्दी
मंगल-विधि में अपरिहार्य बन गई, उस हल्दी को संस्कृत वालों ने इसी से 'वर्णक' संज्ञा दी, मानो वर्ण की सार्थकता हल्दी में ही अर्पित हो गई हो, दूसरे वर्ण
इसके आगे अपार्थ हो गए हों। हल्दी वस्तुत: उस लोक-हृदय की सुरक्षित थाती है, जिसने नए-नए देव और मंत्र तो स्वीकार किए; पर जिसने उपासना के उपादान वैसे ही
संजोये रहे और जिसकी आस्था के रंग वैसे ही चटकीले बने रहे।
हल्दी, दूब इस देश की संस्कृति को रूप और सौंदर्य स्पर्श देते रहे हैं, कमल गंध देता रहा है; पर दधि-अच्छत, रस तथा शब्द देते रहे हैं। जिस प्रकार शब्द से
आकाश भर जाता है, उसी प्रकार से अक्षत से अर्चन की थाली भर जाती है। जिस देश के बाहर-भीतर सभी आकाशों में युगों से अक्षर ब्रह्मा का नाद आपूरित होता रहा हो, उस
देश की जनकल्याणी अंतरात्मा को आसन देने के लिए इसी से अक्षत से बढ़कर कोई सामग्री उपयुक्त नहीं समझी गई और वह अक्षत संस्कृत व्याकरण की महिमा से बराबर
बहुवचन में केवल इसीलिए प्रयुक्त होता रहा कि बहुजन-हिताय का बोध उससे होता रहे।
दही उस संस्कृति की कपिला वाणी की साक्षात रसमयी प्रतिमा है। दूध से यौवन के उफान का बोध भले ही होता रहे, माखन से मन की एकता भी और घृत से आयुष्म की लक्षणा
भी बनती रहे; पर इष्टता की प्राप्ति दही में होती आई है और इसीलिए सही माने में गोरस केवल दही ही है। जिस दही के दान के लिए इस देश के परब्रह्म हाथ पसारते
रहे हों, जिस दही के मटके के लिए मंगलविधि तरसती रही हो, वह दही अपने समस्त गुणों में इस देश की सांस्कृतिक विवर्तनशीलता तथा अंतर्ग्रहणशीलता का प्रतिमान है।
दूध मे खटाई पड़ते ही वह फट जाता है, दूध में नमक की एक छोटी-सी डली भी पड़े तो वह विषतुल्य हो जाता है; पर दही खटाई, मिठाई, लुनाई सभी स्वादों से समरस
होनेवाला एक विलक्षण आस्वादन है। उसमें दूध के उफान या घी के पिघलने से अधिक धीमी आँच में तपने के कारण एक स्थिररूपता है। ठीक यही बात उस दही से अभिव्यज्यमान
संस्कृति के बारे में भी कही जा सकती है, सभी रसों से मेल रखती हुई भी अपने रस में सबको समाविष्ट करती हुई और क्षणिक उत्ताप या द्रवण से अप्रभावित रहकर साम्य
निदर्शन करती हुई वह सच्चे अर्थ में दधि से अधिक 'उर ईठी' बन गई है। उसकी ऐसी महिमा है कि उसके छाछ के लिए तो इंद्र तक तरसते ही हैं, स्वयं सच्चिदानंद तक को
'अहीर की छोहरियाँ तक छछिया भर छाछ पर नाच' नचा देती हैं। उसके मंथन से केवल अमृतमय नवनीत निकलता है।
सौभाग्य, तितिक्षा, स्नेह तथा परिपूर्णता के लिए आग्रह-रूप में उस संस्कृति की पूजा की थाली हल्दी, दूब और दधि-अच्छत से सजायी जाती रही है और सजायी जाती
रहेगी, पर उस पूजा का मर्म उसी को खुलेगा, जो लोक-जीवन की मंगल-साधना में अपने को तन्मय कर सकेगा और वह तन्मयता ग्रामसेवक या गाँव साथी बनने से नहीं आएगी, उसे
पाने के लिए मन से गँवार बनना होगा, शहरी संस्कारों को एकदम धो देना होगा। बिना उसके, हल्दी, दूब और दहि अर्थशून्य आडंबर ही लगेंगे। ये सभी मंगलद्रव्य
अभिव्यंजन हैं, अभिधान नहीं। अभिधान को प्रकट करने में हम दोष मानते हैं और अभिव्यंजन के लिए सहृदयता की जरूरत पड़ती है, बिना उसके उसका उल्लास बनकर
आस्वाद्य नहीं होता। आज संस्कृति का अभिधान तो है, जो न होता तो अच्छा होता; पर उसका अभिव्यंजन नहीं है, उस अभिव्यंजन को न पाकर ही साहित्य रिक्त है,
सांस्कृतिक जीवन भी मृदंग की भाँति मुखर होते हुए भी खोखला है। आज जीवन में उस अभिव्यंजन को भरने की ललक इसीलिए सबसे अधिक है और इसी से हल्दी, दूब और
दधि-अच्छत का मान अधिक दिनों तक उपेक्षित नहीं रह सकेगा।